Monday, January 25, 2010

जन गण मन की दुर्दशा

विजय विनीत
जन गण मनके अधिनायक हे भारत भाग्य विधाता ।
तेरी दशा दुर्दशा पर अब नहीं कोई शरमाता । ।
गदारोंसे पटा पडा है देस का कोना कोना ।
हंसी और किलकारी गुम हुई बचा सिर्फ अब रोना ॥
उसका यहाँ सम्मान हो रहा जो करता अपमानित ।

वहीँ यहाँ पूजा जाता जो तुझ पर दाग लगता ॥
जन मन गण के अधिनायक हे भारत भाग्य विधाता ॥
तेरे घर में नया नया है होता रोज घोटाला ।
दूध नहीं मिलता गावों में मिलाती है मधुशाला ॥
कोई चीनी कोई यूरिया खा गया कोई चारा ।
भोला चेहरा लेकर फिर भी बने है सब बेचारा ॥
बेशर्मी की हद करके हर कोई है मुसकाता।
जन मन गण के अधिनायक हे भारत भाग्य विधाता ॥
सरस्वती पुत्रों का पग पग होता यहाँ अनादर ।
हंश मोर की जुबा बंद चीखें उल्लू चमगादर ॥
हर घर की मुंडेरों पर तक्षक नागों का डेरा ।
सोचो कैसा हमें मिल रहा है अब सुखद सबेरा ॥
क्रन्दन रुदन चीख चिल्लाहट भूले नहीं भुलाता ।
जन मन गण के अधिनायक हे भारत भाग्य विधाता ॥
जय हो भय हो मिलकर के अब फीलगुड करते हैं ।
अब चरखे का अर्थ बदल कर रत दिवस चरते हैं ॥
मोटा करना चाह रहें सब नोटों के बण्डल को ।
पाल रहे हैं पोस रहे हैं सब कसाब अफजल को ॥
जिसे देखिये लोकतंत्र को धकियाता मुकियाता ।
जन मन गण के अधिनायक हे भारत भाग्य विधाता ॥
सत्ता की गलियों में घुस गए गुंडेचोर मवाली ।
विधि विधान को निगल रहें हैं बाहुबली बलशाली ॥
काला अक्षर भैस बराबर मिलकर हुकुम चलायें ।
पढ़े लिखे लोगों को वो उंगली पर नाच नचायें ॥ .
त्राहिमाम कर गिरा पडा हैं संविधान मिमियाता ॥
जन मन गण के अधिनायक हे भारत भाग्य विधाता ॥
बहुजन और सर्वजन की हालत पूछों जन जन से ।
किसको चिंता आज यहाँ हैं अब जन गण के मन से ॥
संसद और विधान सभा में होता ऐसा खेल ।
बड़े बड़े करतब वाले भी हुए मदारी फेल ॥
बनकर गाँधी फिर से कोई आकर राह दिखाता ।
जन मन गण के अधिनायक हे भारत भाग्य विधाता
फोन ९४१५६७७५१३ सोनभद्र उत्तर प्रदेश

Monday, July 27, 2009

हम मौलिक अधिकार से वंचित दशक पाँच बीतल आजादी
चाल विदेशी बात स्वदेशी लूटें पहिर पहिर के खादी
लंच डिनर में खा गैन इ देश के सगरो बिस्कुट जईसन ।
कई योजना देश में आइल गावं तबो चिरकुट के जईसन । ।
इहाँ उहाँ फैक्ट्री जाल फैक्ट्री क फैलवन ।
बड़ा फायदा यह सबसे बा बड़ा करीने से समझवन । ।
शक्तिनगर से रापटगंज तक धुल धुवा क तनल बा चादर ।
भइल मोहाल साँस लेवल अब जहर रोज बरसावे बादर । ।
महुआ खाई महुआ पीहीं उहऊ छीन ले गयल माफिया
सबसे बड़ा उहई डाकू बा जेके हम समझली डाकिया । ।
अपने मन लिखत -पढ़त बा, बैठ -बैठ शहर बजारे
रोज गाँव लिखय समीक्षा नाहीं आयल गाँव जवारे । ।
पढ़य -लिखय वाले भईया से हाथ जोरी के आज कहीला
कलम हाथ में तोहरे बांटे मत मौलिक अधिकार के छीना। ।
लिखा सोन में जहर बहत बा सोनभद्र बा कालाहांडी
सबसे बड़ा इंहा अचरज बा पिघल रहल बा इंहा पहाडी । ।
पग पग पर ये घाटी के माटी में बाटे करुण कहानी
मत डाला के खून के भुला कैसे भइले बलिदानी । ।
जोर जुलुम के देख देख के धरती भी डोल उठल बा।
अइसन सर से पानी गुजरल के नीरव भी बोल उठल बा । ।
आवा आज शपथ लेंही जहर होईं सोन पानी । ।
अइसन हम ललकार मचाई घर घर गुजें जनवाणी


इस कविता की रचना १९९७ में सोन को बचाने के लिए श्री नरेंद्र नीरव द्वारा आयोजित जनवाणी कार्यक्रम में लिखा गया था

विजय विनीत







Saturday, June 20, 2009

इस देश का
लोकतंत्र
गणतंत्र
सभ्यता
संस्कृति
सत्य
धर्म
अहिंषा
सभी
चौराहे
पर
खड़ी
है
लगता
है
दिल्ली
की
आखं
फ़िर
किसी
दगाबाज
से
लड़ी
है

विजय विनीत

Sunday, June 7, 2009

दर्द

अशोक पाण्डेय जी ग्व्यालियर ,दिगम्बर नासवाजी दुबई ,समय जी अलबेलाजी सूरत, नारद मुनीजी गंगानगर ,परमजीत बालीजी ,देवगातिकरजी दिल्ली
संगीताजी बोकारो आप लोगों ने हमारी दिल्ली वाली कविता को सराहा बधाई ब्लॉग की ज्यादा जानकारी नहीं गावं में रहताहूँ ।
आप कुछ इस तरह से जीते हैं
लगता है दर्द बहुत पीते हैं ।
आइनें सा ये बताता चेहरा ,
सारे दिन हादसों में बीते हैं ।
खोयी खोयी सी आखं कहती है ,
आप मंजिल से बहुत पीछे हैं ।
लडखडाती हुई जुबा कहती ,
जुल्म सहते हैं होठ सीते हैं ।
आप कुछ भी न बताएं फ़िर भी ,
कहती सब कुछ ये गजल गीते हैं

विजय विनीत
9415677513

Sunday, May 31, 2009

दिल्ली

हमसे एक व्यक्ति ने पूछा
क्याआपने दिल्ली देखी है ।
हमने कहा जी नहीं ,सुनी है ।
दिल्ली के बारे में ,बहुत बातें गुनी है ,
दिल्ली दिन दुनी रात चौगुनी है ।
संसद में असंसदीय लोगों के आ जाने से सौ गुनी है,
दिल्ली से ही देश में चमत्कार होता है ,
दिल्ली के हस्ताक्षर से विश्व व्यापार होता है ।
दिल्ली द्वारा देश में नर संघार होता है ,
दिल्ली से ही देश का बलात्कार होता है ।
उसने मुझे डाटा ,
मारा एक चांटा ,
बोला अब ऐसी बात मत कहना ,
दिल्ली देश की शान है ,
भारत का अभिमान है ।
विश्व की सर्वोच्च संसद होने से ,
विश्व में महान है ।
मैं उसी दिन से इस देश के रहनुमाओ को ,
ललकार रहा हूँ ,
बार बार धिक्कार रहा हूँ ,
फ़िर भी सभी मौन है ।
कोई नही बताता हमारी
असली दिल्ली कौन है
विजय विनीत

Monday, May 18, 2009

(1)
दिल्ली बड़ी है
दिल्ली छोटी है
दिल्ली खरी है
दिल्ली खोटी है